Friday, March 30, 2007

The myth of Health for all

स्वास्थ्य व्यवस्था को है इलाज की जरूरत
- विनोद विप्लव
पूर्व सोवियत संघ के अल्माअटा में 1977 में वि\श्व स्वास्थ्य संगठन के तत्वावधान में आयोजित अंतराZ\ष्ट्रीय स्वास्थ्य सम्मेलन में भारत सहित वि\श्व के लगभग तमाम दे\शों ने सन् 2000 तक `सभी के लिए स्वास्थ्य´ का संकल्प लिया था। लेकिन 2000 के बीतने के छह साल से अधिक समय के गुजर जाने के बाद यह लक्ष्य दिनों-दिन दूर होता जा रहा है। अब तक हमें यही पढ़ाया जाता रहा है कि लोकतंत्र उस \शासन व्यवस्था को कहते हैं, जो जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता की होती है। लेकिन वि\श्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक दे\श भारत में आज स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं की प्राथमिकताओं में जनता, कम से कम आम जनता कहीं नहीं है। हमारे दे\श में आज स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाएं और सुविधाएं- सरकारी और निजी दोनों- जिस रफ्तार से महंगी और अभिजातोन्मुख होती जा रही है, उसे देखते हुए यह तय सा लगता है कि निकट भवि\ष्य में ही आम लोग स्वास्थ्य और चिकित्सा के दायरे से बिल्कुल बाहर हो चुके होंगे।
आज सरकारी चिकित्सा व्यवस्था के चरमारने, सरकारी अस्पतालों एवं प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों को मिलने वाली सरकारी मदद में लगातार हो रही कटौती और दे\श में निजी एवं पांच सितारा मंहगे अस्पतालों का तेजी से फैलने रहे जाल के कारण चिकित्सा सुविधायें आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रही हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी क्षेत्रों को सरकार की ओर से अधिक से अधिक बढ़ावा मिलने के कारण भारत में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये निजी क्षेत्रों पर निर्भरता वि\श्व के अन्य दे\शों की तुलना में सबसे अधिक हो गयी है। आज गरीब आदमी के लिये बीमारी उसकी बबाZदी का कारण बनने लगी है। या तो गरीब आदमी बीमारी से मौत का ग्रास बनता है और अगर किसी तरह इलाज कराकर जीवित बच भी जाये तो वह आर्थिक तौर पर पूरी तरह से तबाह हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार हमारे दे\श में 40 प्रति\शत से अधिक लोग जब बीमार होकर अस्पताल में भर्ती होते हैं तो उन्हें अपनी सम्पत्ति बेचनी पड़ती है।
हमारे दे\श में आजादी के इतने व\र्ष बाद आज भी स्वास्थ्य सेवाओं और सुविधाओं का औपनिवेf\शक किस्म का ढांचा और ढराZ मौजूद है। यह ढांचा अंग्रेज \शासकों की देन है जिसे दुभाZग्य से आजादी के बाद भी नहीं बदला गया। इस कारण दे\श में स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाओं में घोर वि\षमता और असंतुलन मौजूद है। भारत में ब्रिटि\श मॉडल की चिकित्सा व्यवस्था की नकल करते हुए \शहरों और खास तौर पर महानगरों में बड़े-बड़े अस्पताल खोले गए जिससे चिकित्सा सुविधाएं \शहरों तक ही सिमटती गई। इसी का परिणाम है कि हमारे दे\श में अस्पतालों के 87 प्रति\शत बेड \शहरी क्षेत्रों में और केवल 13 प्रति\शत बेड ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, जहां हमारी आबादी का 70 प्रति\शत हिस्सा बसता है।
हमारे दे\श में चिकित्सा व्यवस्था की बदहाली के लिसे स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के मद में काफी कम बजट और इस बजट का गलत वितरण भी जिम्मेदार है। दे\श में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं के लिये सरकारी सfब्सडी का वितरण गरीबों खास कर गांवों और निर्धनतम राज्यों के गरीबों के पक्ष में नहीं है बल्कि धनी वगोZं के पक्ष में है। मौजूदा समय में केन्द्र और राज्य सरकारें कुल मिलाकर सकल रा\ष्ट्रीय उत्पाद का 1-5 प्रति\शत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च कर रही है। यह खर्च स्वास्थ्य पर सकल रा\ष्ट्रीय उत्पाद का पांच प्रति\शत हिस्सा खर्च करने की वि\श्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू-एच-ओ-) की अनु\शंसा से बहुत कम है। भोरे समिति ने आजादी के समय ही स्वास्थ्य पर कम से कम इतना ही खर्च करने की सिफारि\श की थी। वैसे तो हमारे दे\श में प्रथम पंचव\षीZय योजना में स्वास्थ्य पर कुल 3-3 प्रति\शत निवे\श किया गया था, जो हर पंचव\षीZय योजना में घटता गया। मौजूदा स्थिति यह है कि स्वास्थ्य पर जो निवे\श किया जा रहा है उसका 80 प्रति\शत हिस्सा चिकित्सकों एवं कर्मचारियों के वेतन पर ही खर्च हो जाता है और \शे\ष राf\श दवाईयों, उपकरणों तथा अन्य जरूरी मदों में खर्च होती है।
लोगों की एक पुरानी f\शकायत अस्पतालों में स्वास्थ्य कर्मियों की गैरमौजूदगी की है। आज प्रति 10 हजार लोगों पर तीन लाइसेंस\शुदा चिकित्सक और प्रति 10 हजार लोगों पर अस्पतालों में 10 बिस्तर हैं। ये ढांचे एवं सुविधायें हमारी उस थकी हारी चिकित्सा व्यवस्था का हिस्सा है जो गांवों और कस्बों में रहने वाले बड़े हिस्सों को कहने भर को चिकित्सा सेवायें मुहैया करा पा रही हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और उप केन्द्रों में इलाज के लिये आने वाले मरीज अद्धZचिकित्सा कfम्ाZयों पर ही निर्भर हैं। प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों की मुख्य समस्या यह है कि इन पर संक्रामक बीमारियों की रोकथाम के कार्यक्रम चलाने की जिम्मेदारी इस कदर लाद दी गयी है कि केन्द्र रोगियों को सामान्य चिकित्सा उपलब्ध कराने में अक्षम साबित हो रहे हैं।
आज एक समय काबू में कर ली गयी मलेरिया, कालाजार और तपेदिक जैसी बीमारियों अधिक आक्रामकता एवं \शक्ति के साथ कोहराम मचा रही हैं, जो एक समय या तो मिटा दी गई थीं या नियंत्रित कर ली गई थीं। यही नहीं, आज एड्स जैसी बीमारियां जन-स्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौती बनकर सामने आ रही हैं। एड्स ऐसी खौफनाक बीमारी है, जिसका अभी तक इलाज नहीं ढूंढा जा सका है। अगर इसका कारगर उपचार नहीं ढूंढा गया, तो अनुमान है कि अगली \शताब्दी के आरंभ से एड्स भयानक महामारी का रूप धारण कर लेगा और लाखों लोग इसके कारण मौत के f\शकार बनेंगे। बढ़ते प्रदू\षण, भाग-दौड़, व्यस्तता और रहन-सहन तथा खान-पान में बदलाव के कारण स्वास्थ्य की नयी-नयी समस्याएं सामने आ रही हैं। आज âदय रोग, तपेदिक और यौन रोग समेत तमाम \शारीरिक बीमारियों का प्रकोप दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। दे\श में जीवनरक्षक दवाईयों एवं बुनियादी चिकित्सा के अभाव में रोजाना सैकड़ों लोग उन सामान्य बीमारियों के कारण असमय मर रहे हैं जिनका आसानी से इलाज हो सकता है, बच्चों में दमा, निमोनिया जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है। दे\श में गरीब लोग कुपो\षण, रोके जा सकने वाले संक्रमणों, प्रसव संबंधी जटिलताओं से मौत के ग्रास बन रहे हैं। ऐसे में आने वाले समय में बीमारियों के विस्फोट के कारण उत्पन्न चुनौतियों का सामना हम ऐसी स्वास्थ्य नीति बनाकर ही कर सकते हैं जो खुद सही मायने में स्वस्थ एवं संतुलित हो।
स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर निवे\श में भारी वृfद्ध करने की जरूरत तो है ही लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरत दे\श के पिछड़े इलाकों में रह रहे लोगों को समुचित स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराने की है। इसके अलावा दे\श की मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था को भी पूरी तरह से पुनजीZवित एवं सक्रिय करने की जरूरत है। यह काम केवल सरकार एवं सरकारी विभागों के बलबूते का नहीं है बल्कि जरूरी यह है लोग अपने, अपने परिवार और समुदाय के स्वास्थ्य की जिम्मेदारियों को समझें और उन जिम्मेदारियों को वहन करेंं। अगर हम तत्काल नहीं चेते तो आने वाले समय में हमारा दे\श बीमारों से भर जायेगा।
- विनोद विप्लव
21, यू- एन- आई- अपार्टमेन्ट्स
सेक्टर -11, वसुंधरा
गाजियाबाद
बाक्स
लूट में सक्रिय निजी अस्पताल
- विनोद विप्लव
हमारे दे\श में आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा निजी अस्पतालों एवं निजी चिकित्सकों के रहमोकर्म पर निर्भर है। सरकार ने आम लोगों को स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराने के मामले में निजी क्षेत्र को महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी है। दे\श में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं तथा निजी स्वास्थ्य सेवाओं की जनोपयोगिता के बारे में कोई तुलनात्मक अध्ययन करना संभव नहीं है क्योंकि दोनों के लक्ष्य बिल्कुल अलग-अलग हैं। निजी क्षेत्रों का मुख्य उद्दे\श्य मुनाफा कमाना है जबकि सरकारी क्षेत्र का उद्दे\श्य सामाजिक सेवा होना चाहिये। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का उद्दे\श्य दे\श के सभी भागों में तथा सभी वगोZं के लोगों को चिकित्सा सुविधायें मुहैया कराना होता है वहीं निजी स्वास्थ्य सेवाओं का उद्दे\श्य उन्हीं क्षेत्रों एवं लोगों पर केfन्द्रत करना होता है ताकि जल्द से जल्द और अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जा सके।
स्वास्थ्य के क्षेत्र निजी क्षेत्रों को बढ़ावा देने की सरकार की नीति के कारण आज हमारे दे\श में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा ने बहुत बड़े बाजार का रूप धारण कर लिया है। आज भारत में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का 400 से 600 अरब रुपये का वि\शाल बाजार है। लेकिन इतना वि\शाल होने के बावजूद यह बाजार पूरी तरह से अनियंत्रित एवं अनियोजित है।
अनुमान है कि दे\श में करीब 57 प्रति\शत अस्पताल और 32 प्रति\शत बिस्तर निजी क्षेत्रों में हैं। हालांकि निजी क्षेत्रों में आने वाले 85 प्रति\शत अस्पतालों में 25 से भी कम बिस्तर हैं। भारतीय मेडिकल परि\षद से पंजीकृत चिकित्सकों में से केवल 20 प्रति\शत चिकित्सक सरकारी सेवा में हैं।
दे\श में स्वास्थ्य सेवाओं पर की जाने वाली खर्च में से 75 प्रति\शत खर्च निजी क्षेत्र से, 16 प्रति\शत खर्च राज्यों सेे, और छह प्रति\शत खर्च केन्द्र सरकार से और \शे\ष तीन प्रति\शत खर्च निगमित क्षेत्र से होती है। दे\श में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में निजी क्षेत्रों के व्यापक पैमाने पर विस्तार के मद्देनजर निजी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर काफी \शंकायें एवं आ\शंकायें जतायी गयी है।
हमारे दे\श में सरकार निजी अस्पताल, जांच केन्द्र और फर्मास्यूटिकल बनाने के लिये सबसिडी, _ण, कर में माफी और अन्य सुविधायें प्रदान करती है। मिसाल के तौर पर सरकार अनैतिक, \शो\षक एवं मरीजों को लूटने वाले निजी क्षेत्र के अस्पतालों को सरकारी राजस्व से f\शक्षा पाने वाले चिकित्सक उपलब्ध कराकर उनकी किस भारी पैमाने पर मदद करती है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार को एक चिकित्सक की f\शक्षा एवं उनके प्रf\शक्षण पर मौजूदा बाजार मूल्य के हिसाब से करीब दस लाख रुपये खर्च करती है और सरकारी खर्च पर चलने वाले मेडिकल कालेजों से f\शक्षा पाकर निकलने वाले 80 प्रति\शत चिकित्सक या तो निजी क्षेत्रों में नौकरी करने लगते हैं या विदे\श चले जाते हैं। इस तरह से सरकार अपना एक वि\शाल संसाधन खो देती है जिनका इस्तेमाल जनता के कल्याण के लिये हो सकता था। सरकार की इस अप्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्ष सहायता की बदौलत हमारे दे\श में स्वास्थ्य में जिस वि\शालकाय निजी क्षेत्र का उदय हुआ है वह वि\श्व भर में सबसे बड़ा है। दे\श में निजी क्षेत्र का अंधाधुध विस्तार स्वास्थ्य सुविधाओं के वितरण के मामले में भयानक पैमाने पर असंतुलन एवं वि\षमता के लिये जिम्मेदार तो है ही इसका आंतरिक कार्यकलाप भी समस्याओं से fघरा है। बेहतर, कारगर एवं सक्षम चिकित्सा सेवा देने के निजी अस्पतालों के दावे को सच्चाई की कसौटी पर कसा जाना अभी बाकी ही है जहां मरीजों को गलत चिकित्सा देने और मरीजों को लूटने के लिये गैर जरूरी जांच एवं गैर जरूरी सर्जरी करने की प्रवृतियां आम हो चुकी हैं।
- विनोद विप्लव

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