Friday, March 30, 2007

क्या अमिताभ बच्चन दिलीप कुमार से बडे हैं

बाज़ार केवल धनवान बना सकता है, महान नहीं!
विनोद विप्‍लव
हम यह मान कर चल रहे थे कि मोहल्‍ले में अमिताभ बड़े कि दिलीप साहब वाली बहस का लगभग अंत हो चुका है, ल‍ेकिन दरअसल ऐसा नहीं हुआ। यूनीवार्ता के मुख्‍य उपसंपादक और सिनेमा पर गाहे-बगाहे और कभी कभी बहुत तेज़ी से कलम चलाने वाले विनोद विप्‍लव ने इसी मुद्दे पर कुछ और बातें कह दीं। यानी बात निकली है, तो यहीं कहीं नहीं रह जाने वाली है।अकारण ही अमिताभ बच्चन को दिलीप कुमार से महान और प्रतिभावान साबित करने की स्वार्थपूर्ण कोशिशों से भरा अभिसार का आलेख मौजूदा समय में उभरती अत्यंत ख़तरनाक प्रवृत्ति का परिचायक है। यह दरअसल हमारे समाज और संस्कार में वर्षों से कायम हमारे आदर्शों, मूल्यों एवं प्रतीकों को नष्ट करके बाज़ारवाद एवं पूंजीवाद के ढांचे में फ़िट बैठनेवाले प्रतीकों को गढ़ने एवं उन्हें जनमानस के लिए स्वीकार्य बनाने की साजिश का हिस्सा है। दुर्भाग्य से अभिसार जैसे मीडियाकर्मी जाने अनजाने इस साजिश के हिस्सा बन रह हैं। मौजूदा बाज़ारवाद को सिद्धांतवादी, आत्मसम्मानी और अभिमानी दिलीप कुमार जैसे प्रतीकों की जरूरत नहीं है, बल्कि अमिताभ बच्‍चन जैसे मौकापरस्त, शातिर, अनैतिक और समझौतावादी जैसे उन मूल्यों से भरे प्रतीकों एवं पात्रों की जरूरत है, जिन मूल्यों को बाज़ार पोषित करना चाहता है। बाज़ार को दिलीप कुमार जैसे पुराने समय के प्रतीकों की जरूरत नहीं है। ज़ाहिर है कि उसके लिए एसे प्रतीक बेकार हैं। ऐसा इसलिए कि ये प्रतीक उपभोक्ताओं के बीच विभिन्न उत्पादों और मालों को बेचने में सहायक नहीं होते। बाजार की नजर में ये प्रतीक मूल्यहीन होते हैं।भूपेन सिंह का यह सवाल वाजिब है कि अमिताभ को महानायक बनाने में बाज़ार और मास मीडिया का रोल नहीं। तो एक औसत अभिनेता मौजूदा समय क सबसे मंहगे और सर्वाधिक प्रभावी ब्रांड में कैसे तब्दील हो गया। अमिताभ बच्चन के अतीत से वाकिफ़ लोगों को पता है- जो आवाज़ मौजूदा बाज़ार और आज की पीढ़ी को अजीज़ है, वह आकाशवाणी की मामूली नौकरी की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी। अब कोई यह कहे कि आकाशवाणी को प्रतिभा की पहचान नहीं है, तो यह कुतर्क ही है, क्योंकि इसी आकाशवाणी ने अपने समय के अनेक गायकों और संगीतकारों को पोषित किया, जिनके संगीत और आवाज़ का जादू आज तक कायम है।बाज़ार और मीडिया की प्रतिभा की पहचानने की क्षमता की वकालत करने वालों को यह बता देना मुनासि़ब होगा कि आज मीडिया और बाजार ने जिन प्रतिभाओं को चुना है, उनमें राखी सावंत, मल्लिका शेरावत, हिमेश रेशमिया और अभिजीत सावंत प्रमुख हैं। हो सकता है कि आकाशवाणी से एक महान प्रतिभा को पहचानने में चूक हुई हो, लेकिन जानने वाले यह जानते हैं कि अगर तेजी बच्चन को पंडित नेहरु से नजदीकियां प्राप्‍त नहीं होतीं, राजीव गांधी अमिताभ बच्चन को लेकर उस समय के निर्माता-निर्देशकों के पास नहीं जाते और इंदिरा गांधी का वरदहस्त नहीं प्राप्त होता, जिसके कारण सुनील दत्त सरीखे अभिनेताओं को मिलने वाले रोल अमिताभ को मिले, तो अमिताभ बच्चन का दर्जा बॉलीवुड में एक्स्ट्रा कलाकार से अधिक नहीं होता। यह अलग बात है कि अमिताभ बच्चन अमर सिंह जैसे धूर्त विदूषकों के जाल में फंस कर गांधी परिवार को नीचा दिखाने में लगे हैं।अभिसार जैसे अमिताभ की प्रतिभा के अंध भक्त लोग यह तर्क दे सकते हैं कि अगर अमिताभ बच्‍चन में प्रतिभा नहीं होती, तो वह इस कदर लोकप्रिय कैसे होते। लेकिन क्या लोकप्रियता हमेशा प्रतिभा और गुणवत्ता का परिचायक होती है? आज अमर सिंह जैसे दलाल संभवत नेहरु और गांधी से भी लोकप्रिय हैं, तो क्या वह गांधी से भी बड़े राजनीतिज्ञ हो गये? गुलशन नंदा और रानू बहुत अधिक लोकप्रिय होने के कारण क्या प्रेमचंद, निराला और टैगोर से बड़े लेखक हो गये। क्या दीपक चौरसिया जैसे लपुझंग लोग आज के सबसे बड़े पत्रकार हो गये? क्या मल्लिका शेरावत और राखी सावंत जैसी बेशर्म लडकियां स्मिता पाटिल से बड़ी अदाकारा हो गयीं? इसी तरह से क्या अमिताभ बच्चन आज के समय के सबसे बडे़ ब्रांड और सबसे अधिक लोकप्रिय होने के कारण दिलीप कुमार, संजीवकुमार, राजकपूर, देवानंद और यहां तक कि आज के समय के नसीरुद्दीन शाह से बडे़ और महान कलाकार हो गये?अमिताभ बच्‍‍चन की लोकप्रियता पर अभिसार को इतना भरोसा है कि वह यह दावा कर बैठे कि अमिताभ बच्‍चन को ध्यान में रख कर 20 साल बाद भी फिल्में बनायी जाती रहेंगी। अभिसार की यह बात पढ़नेवाला उनके इतिहास बोध पर तरस खायेगा। भूपेन सिंह की इस बात से मैं सहमत हूं कि अमिताभ के चेहरे में कभी अमर सिंह की बेहूदगी दिखाई देती है, तो कभी मुलायम सिंह जैसा कॉर्पोरेट समाजवाद नज़र आता है। कभी वह किसी जुआघर का मालिक लगता है, तो कभी पैसे के लिए झूठ बेचता बेईमान। किसी को बैठे-बिठाये करोड़पति होने के लिए लुभानेवाला ये शख्स बहुत घाघ भी लगता है। कैडबरी के ज़हरीले कीटाणु बेचता। पैसे के लिए अपनी होने वाली बहू के साथ भी किसी भी तरह का नाच नाचने को तैयार।जो आदमी अमर सिंह जैसे घटिया दलाल की दलाली में इतना नीचे गिर जाये कि उसके मुंह से निठारी के मासूम बच्चों के लिए सहानुभूति के दो शब्द निकलने के बजाय उत्तर प्रदेश में जुर्म कम नज़र आये, वो शख्स भले ही कितना बड़ा अभिनेता या नेता बन जाये, इतना बड़ा कतई नहीं बन सकता कि उसे बड़ा साबित दिखाने के लिए दिलीप कुमार जैसे शख्स की तौहीन की जाए। सच तो यह है कि अमिताभ बच्चन को दिलीप कुमार की महानता के सबसे निचले पायदान तक पहुंचने के लिए एक जन्म तो क्या हज़ार जन्म लेने पड़ेंगे।

क्या अमिताभ बच्चन दिलीप कुमार से बडे हैं

बाज़ार केवल धनवान बना सकता है, महान नहीं!
विनोद विप्‍लव
हम यह मान कर चल रहे थे कि मोहल्‍ले में अमिताभ बड़े कि दिलीप साहब वाली बहस का लगभग अंत हो चुका है, ल‍ेकिन दरअसल ऐसा नहीं हुआ। यूनीवार्ता के मुख्‍य उपसंपादक और सिनेमा पर गाहे-बगाहे और कभी कभी बहुत तेज़ी से कलम चलाने वाले विनोद विप्‍लव ने इसी मुद्दे पर कुछ और बातें कह दीं। यानी बात निकली है, तो यहीं कहीं नहीं रह जाने वाली है।अकारण ही अमिताभ बच्चन को दिलीप कुमार से महान और प्रतिभावान साबित करने की स्वार्थपूर्ण कोशिशों से भरा अभिसार का आलेख मौजूदा समय में उभरती अत्यंत ख़तरनाक प्रवृत्ति का परिचायक है। यह दरअसल हमारे समाज और संस्कार में वर्षों से कायम हमारे आदर्शों, मूल्यों एवं प्रतीकों को नष्ट करके बाज़ारवाद एवं पूंजीवाद के ढांचे में फ़िट बैठनेवाले प्रतीकों को गढ़ने एवं उन्हें जनमानस के लिए स्वीकार्य बनाने की साजिश का हिस्सा है। दुर्भाग्य से अभिसार जैसे मीडियाकर्मी जाने अनजाने इस साजिश के हिस्सा बन रह हैं। मौजूदा बाज़ारवाद को सिद्धांतवादी, आत्मसम्मानी और अभिमानी दिलीप कुमार जैसे प्रतीकों की जरूरत नहीं है, बल्कि अमिताभ बच्‍चन जैसे मौकापरस्त, शातिर, अनैतिक और समझौतावादी जैसे उन मूल्यों से भरे प्रतीकों एवं पात्रों की जरूरत है, जिन मूल्यों को बाज़ार पोषित करना चाहता है। बाज़ार को दिलीप कुमार जैसे पुराने समय के प्रतीकों की जरूरत नहीं है। ज़ाहिर है कि उसके लिए एसे प्रतीक बेकार हैं। ऐसा इसलिए कि ये प्रतीक उपभोक्ताओं के बीच विभिन्न उत्पादों और मालों को बेचने में सहायक नहीं होते। बाजार की नजर में ये प्रतीक मूल्यहीन होते हैं।भूपेन सिंह का यह सवाल वाजिब है कि अमिताभ को महानायक बनाने में बाज़ार और मास मीडिया का रोल नहीं। तो एक औसत अभिनेता मौजूदा समय क सबसे मंहगे और सर्वाधिक प्रभावी ब्रांड में कैसे तब्दील हो गया। अमिताभ बच्चन के अतीत से वाकिफ़ लोगों को पता है- जो आवाज़ मौजूदा बाज़ार और आज की पीढ़ी को अजीज़ है, वह आकाशवाणी की मामूली नौकरी की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी। अब कोई यह कहे कि आकाशवाणी को प्रतिभा की पहचान नहीं है, तो यह कुतर्क ही है, क्योंकि इसी आकाशवाणी ने अपने समय के अनेक गायकों और संगीतकारों को पोषित किया, जिनके संगीत और आवाज़ का जादू आज तक कायम है।बाज़ार और मीडिया की प्रतिभा की पहचानने की क्षमता की वकालत करने वालों को यह बता देना मुनासि़ब होगा कि आज मीडिया और बाजार ने जिन प्रतिभाओं को चुना है, उनमें राखी सावंत, मल्लिका शेरावत, हिमेश रेशमिया और अभिजीत सावंत प्रमुख हैं। हो सकता है कि आकाशवाणी से एक महान प्रतिभा को पहचानने में चूक हुई हो, लेकिन जानने वाले यह जानते हैं कि अगर तेजी बच्चन को पंडित नेहरु से नजदीकियां प्राप्‍त नहीं होतीं, राजीव गांधी अमिताभ बच्चन को लेकर उस समय के निर्माता-निर्देशकों के पास नहीं जाते और इंदिरा गांधी का वरदहस्त नहीं प्राप्त होता, जिसके कारण सुनील दत्त सरीखे अभिनेताओं को मिलने वाले रोल अमिताभ को मिले, तो अमिताभ बच्चन का दर्जा बॉलीवुड में एक्स्ट्रा कलाकार से अधिक नहीं होता। यह अलग बात है कि अमिताभ बच्चन अमर सिंह जैसे धूर्त विदूषकों के जाल में फंस कर गांधी परिवार को नीचा दिखाने में लगे हैं।अभिसार जैसे अमिताभ की प्रतिभा के अंध भक्त लोग यह तर्क दे सकते हैं कि अगर अमिताभ बच्‍चन में प्रतिभा नहीं होती, तो वह इस कदर लोकप्रिय कैसे होते। लेकिन क्या लोकप्रियता हमेशा प्रतिभा और गुणवत्ता का परिचायक होती है? आज अमर सिंह जैसे दलाल संभवत नेहरु और गांधी से भी लोकप्रिय हैं, तो क्या वह गांधी से भी बड़े राजनीतिज्ञ हो गये? गुलशन नंदा और रानू बहुत अधिक लोकप्रिय होने के कारण क्या प्रेमचंद, निराला और टैगोर से बड़े लेखक हो गये। क्या दीपक चौरसिया जैसे लपुझंग लोग आज के सबसे बड़े पत्रकार हो गये? क्या मल्लिका शेरावत और राखी सावंत जैसी बेशर्म लडकियां स्मिता पाटिल से बड़ी अदाकारा हो गयीं? इसी तरह से क्या अमिताभ बच्चन आज के समय के सबसे बडे़ ब्रांड और सबसे अधिक लोकप्रिय होने के कारण दिलीप कुमार, संजीवकुमार, राजकपूर, देवानंद और यहां तक कि आज के समय के नसीरुद्दीन शाह से बडे़ और महान कलाकार हो गये?अमिताभ बच्‍‍चन की लोकप्रियता पर अभिसार को इतना भरोसा है कि वह यह दावा कर बैठे कि अमिताभ बच्‍चन को ध्यान में रख कर 20 साल बाद भी फिल्में बनायी जाती रहेंगी। अभिसार की यह बात पढ़नेवाला उनके इतिहास बोध पर तरस खायेगा। भूपेन सिंह की इस बात से मैं सहमत हूं कि अमिताभ के चेहरे में कभी अमर सिंह की बेहूदगी दिखाई देती है, तो कभी मुलायम सिंह जैसा कॉर्पोरेट समाजवाद नज़र आता है। कभी वह किसी जुआघर का मालिक लगता है, तो कभी पैसे के लिए झूठ बेचता बेईमान। किसी को बैठे-बिठाये करोड़पति होने के लिए लुभानेवाला ये शख्स बहुत घाघ भी लगता है। कैडबरी के ज़हरीले कीटाणु बेचता। पैसे के लिए अपनी होने वाली बहू के साथ भी किसी भी तरह का नाच नाचने को तैयार।जो आदमी अमर सिंह जैसे घटिया दलाल की दलाली में इतना नीचे गिर जाये कि उसके मुंह से निठारी के मासूम बच्चों के लिए सहानुभूति के दो शब्द निकलने के बजाय उत्तर प्रदेश में जुर्म कम नज़र आये, वो शख्स भले ही कितना बड़ा अभिनेता या नेता बन जाये, इतना बड़ा कतई नहीं बन सकता कि उसे बड़ा साबित दिखाने के लिए दिलीप कुमार जैसे शख्स की तौहीन की जाए। सच तो यह है कि अमिताभ बच्चन को दिलीप कुमार की महानता के सबसे निचले पायदान तक पहुंचने के लिए एक जन्म तो क्या हज़ार जन्म लेने पड़ेंगे।

A letter to Manisha Pandey

प्रिय मनी’ाा जी,आप जैसी विचारवान “ाख्स की यह राय जानकर दुख हुआ कि ब्लॉग बंजर धरती है और इसके जरिये सार्थक बहस की नहीं जा सकती है। यह जरूर है कि इंटरनेट और खास तौर पर ब्लॉग सूचना एवं संवाद का नया माध्यम है। हिन्दीभाf’ायों के लिये तो यह बिल्कुल ही अजनबी माध्यम है, लेकिन आने वाले समय में यही सूचना, संचार एवं संवाद का स”ाक्त माध्यम बनने वाला है। कई विकसित दे”ाों में ब्लाग ने वह रूतबा कायम कर लिया है जो हमारे दे”ा में बड़े अखबारों को ही नसीब है। यह नहीं ब्लॉग रचनाकारों को संवाददाता का दजाZ दिया जाने लगा है। सुनामी और मुंबई की 31 जुलाई की जानलेवा बारि”ा जैसे कई मौकों पर कई ब्लॉगों ने लोगों को राहत पहुंचाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे में ब्लॉग को निरर्थक एवं बंजर बताना सही नहीं है। मेरी राय में ब्लाग मौजूदा समय में संवाद एवं सूचना का सर्वाधिक लोकतांत्रिक एवं सही मायने में fद्वपक्षीय संवाद का सबसे कारगर एवं सबसे सस्ता एवं सुविधाजनक जरिया है। इसलिये मेरा अनुरोध है कि ब्लॉग के बारे में आप अपनी राय के बारे में पुनर्विचार करिये। ब्लॉग को बंजर बता कर आप अविना”ा जी जैसे समर्पित ब्लागरों की मेहनत को अपमानित कर रही हैं। आपकी दूसरी f”ाकायत यह है कि ब्लाग के जरिये गंभीर बहस नहीं होती और ऐसी बहस से किसी सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। इस बारे में मैं यही कहना चाहुंगा कि आज जब पारस्परिक बहस और विम”ाZ के सारे दरवाजे एक के बाद एक करके बंद होते जा रहे हैं वैसे में ब्लॉग हमारे लिये बहस का एक नया दरवाजा उपलब्ध करवा रहा है। अब स्तरीय संवाद की बात है तो क्या दे”ा की सर्वोच्च पंचायत संसद और लोकतंत्र के चौथे प्रति’ठान मानी जाने वाली मीडिया में क्या स्वस्थ एवं स्तरीय बहस, संवाद या वाद-विवाद हो रहे हैं। नहीं न। इसका मतलब हम इन्हें बेकार तो नहीं बता सकते। दूसरे ब्लाग जैसे माध्यम ने तो अभी अपना आकार भी ग्रहण नहीं किया है। यह तो अभी नवजात है। अभी तो इसका फलना-फूलना बाकि है। अगर अभी से आप जैसे लोग ब्लॉग को गलियाने लगेंगे तो क्या होगा। ब्लाग ने आज हर आदमी चाहे वह धनी हो या नहीं, उसे अपनी बात कहने का मौका उपल्ाब्ध करा दिया है। एक समय था कहानी, कविता या लेख छपवाने लोहे के चने चबाने के समान था। संपादक अपने को ई”वर से कम नहीं मानते थे। लेकिन ब्लॉग ने हर व्यक्ति को संपादक बना दिया है। अब हर व्यक्ति थोड़ा समय एवं थोड़े पैसे लगा कर अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिये स्वतंत्र है। यह ब्लॉग का ही करामात है। मुझे तो खु”ाी है कि हिन्दी भा’ाी पत्रकार एवं लेखक ब्लॉग की महत्ता समझ कर इस दि”ाा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगे हैं अन्यथा एक समय तो अंग्रेजीदां लोगों का ही इस पर कब्जा था। हम हिन्दी भा’ाी लोगों का यह फर्ज है कि इसे आंदोलन का स्वरूप दें और इसे सामाजिक चेतना का एक नया माध्यम बनायें। एक बात और। मॉनीटर की तरह से आकर अच्छी खासी बहस को समाप्त करा देने की आपकी आदत से भी मुझे आपत्ति है। हमें घर-मोहल्लों, दफ्तरों, मीडिया और सड़क से संसद तक नयी किस्म की साडि़यों, लिपिfस्टक, क्रिकेट, इमरान हा”ामी, नाग-नागिन, बटूकनाथ, राखी सावंत, गडढे में प्रिंस, पुनर्जन्म, लेटेस्ट मोबाइल टोन्स, रिलायंस स्टोर आदि- आदि के बारे होने वाली निरर्थक बहस से तो कोई गुरेज नहीं है लेकिन दो मूल्यों एवं पीfढ़यों को प्रतिनिधित्व करने वाली दो महान हस्तियों पर बहस करने से आपत्ति क्यों है। अभिसार ने जो बात कह दी अगर उसे मान लेने के बजाय अपनी राय रखने में कौन सा पहाड़ टूट पड़ता है। क्या आप वैसे समाज का निर्माण करना चाहती हैं जहां सभी लोग एक ही तरह की भा’ाा बोलें, एक तरह के विचार रखें और एक तरह से सोचें। क्या ऐसा समाज रहने लायक होगा। मेरी राय में किसी भी बहस को तब तक चलने देना चाहिये जब तक कि वह स्वत पूर्ण नहीं हो जाये। फूल को पूरी तरह से प्रस्फुटित होने देने से पहले ही उसे मसल देना अप्राकृतिक एवं अलोकतांत्रिक है। कम से ब्लाग जैसे लोकतांत्रिक माध्यम के साथ ऐसा अलोकतांत्रिक तरीका नहीं अपनाया जाना चाहिये। अब कुछ उटपटांग लोग तो कुछ न कुछ कहेंगे ही क्योंकि लोगों का काम है कहना। लेकिन कुछ अच्छे लोग भी तो अच्छी बातें कहेंगे। उटपटांग एवं बकवास लोगों के भय से अच्छी बातों को सामने आने से क्यों बंचित किया जाये। मेरी राय में इधर-उधर की बातों पर बहस करने या सुनने तो अच्छा है कि ब्लॉग के जरिये अपने विचारों का आदान -प्रदान करें। बेहतर तो यह होता कि आमने - सामने बैठकर विचारों का आदान प्रदान हो लेकिन अब न तो समय है न ही ऐसी सुविधा। बहस को चलते देने में क्या बुराई है। “ाायद मेरी टिप्पणी पर सबसे कड़ी प्रतिक्रिया हुई। यहां तक कि एक सज्जन ने मुझ पर व्यक्तिगत आरोप ही लगा बैठे, इसके बाद भी मैं कहुंगा कि यह बहस जारी रहे - न केवल यह बहस बल्कि अन्य बहस भी। जिन्हें बहस में नहीं पड़ना है वे तो नि”चय ही कहानी, कविता एवं उपन्यास पढ़ेगे। यह जरूर है कि बहस को और सार्थक बनाया जाये, लेकिन सार्थक बहस नहीं हो पा रही हो इस कारण से संवाद या बहस ही बंद करा दी जाये, यह कहां की बुfद्धमानी है। यह तो वही बात हुयी कि अगर किसी समाज को बेहतर नहीं बनाया जा सके तो उसे समाप्त ही कर दिया जाये। आपको याद रखना चाहिये कि बहस एवं संवाद से ही समाज बनता है, बहस का नि’ोध एक तरह की ताना”ााही है। बहस पर प्रतिबंध अलोकतांत्रिक है। दु:ख है कि अविना”ा जी ने भी इस ताना”ााही को हम पर लाद दिया। विनोद विप्लव9868793203

The myth of Health for all

स्वास्थ्य व्यवस्था को है इलाज की जरूरत
- विनोद विप्लव
पूर्व सोवियत संघ के अल्माअटा में 1977 में वि\श्व स्वास्थ्य संगठन के तत्वावधान में आयोजित अंतराZ\ष्ट्रीय स्वास्थ्य सम्मेलन में भारत सहित वि\श्व के लगभग तमाम दे\शों ने सन् 2000 तक `सभी के लिए स्वास्थ्य´ का संकल्प लिया था। लेकिन 2000 के बीतने के छह साल से अधिक समय के गुजर जाने के बाद यह लक्ष्य दिनों-दिन दूर होता जा रहा है। अब तक हमें यही पढ़ाया जाता रहा है कि लोकतंत्र उस \शासन व्यवस्था को कहते हैं, जो जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता की होती है। लेकिन वि\श्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक दे\श भारत में आज स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं की प्राथमिकताओं में जनता, कम से कम आम जनता कहीं नहीं है। हमारे दे\श में आज स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाएं और सुविधाएं- सरकारी और निजी दोनों- जिस रफ्तार से महंगी और अभिजातोन्मुख होती जा रही है, उसे देखते हुए यह तय सा लगता है कि निकट भवि\ष्य में ही आम लोग स्वास्थ्य और चिकित्सा के दायरे से बिल्कुल बाहर हो चुके होंगे।
आज सरकारी चिकित्सा व्यवस्था के चरमारने, सरकारी अस्पतालों एवं प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों को मिलने वाली सरकारी मदद में लगातार हो रही कटौती और दे\श में निजी एवं पांच सितारा मंहगे अस्पतालों का तेजी से फैलने रहे जाल के कारण चिकित्सा सुविधायें आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रही हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी क्षेत्रों को सरकार की ओर से अधिक से अधिक बढ़ावा मिलने के कारण भारत में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये निजी क्षेत्रों पर निर्भरता वि\श्व के अन्य दे\शों की तुलना में सबसे अधिक हो गयी है। आज गरीब आदमी के लिये बीमारी उसकी बबाZदी का कारण बनने लगी है। या तो गरीब आदमी बीमारी से मौत का ग्रास बनता है और अगर किसी तरह इलाज कराकर जीवित बच भी जाये तो वह आर्थिक तौर पर पूरी तरह से तबाह हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार हमारे दे\श में 40 प्रति\शत से अधिक लोग जब बीमार होकर अस्पताल में भर्ती होते हैं तो उन्हें अपनी सम्पत्ति बेचनी पड़ती है।
हमारे दे\श में आजादी के इतने व\र्ष बाद आज भी स्वास्थ्य सेवाओं और सुविधाओं का औपनिवेf\शक किस्म का ढांचा और ढराZ मौजूद है। यह ढांचा अंग्रेज \शासकों की देन है जिसे दुभाZग्य से आजादी के बाद भी नहीं बदला गया। इस कारण दे\श में स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाओं में घोर वि\षमता और असंतुलन मौजूद है। भारत में ब्रिटि\श मॉडल की चिकित्सा व्यवस्था की नकल करते हुए \शहरों और खास तौर पर महानगरों में बड़े-बड़े अस्पताल खोले गए जिससे चिकित्सा सुविधाएं \शहरों तक ही सिमटती गई। इसी का परिणाम है कि हमारे दे\श में अस्पतालों के 87 प्रति\शत बेड \शहरी क्षेत्रों में और केवल 13 प्रति\शत बेड ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, जहां हमारी आबादी का 70 प्रति\शत हिस्सा बसता है।
हमारे दे\श में चिकित्सा व्यवस्था की बदहाली के लिसे स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के मद में काफी कम बजट और इस बजट का गलत वितरण भी जिम्मेदार है। दे\श में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं के लिये सरकारी सfब्सडी का वितरण गरीबों खास कर गांवों और निर्धनतम राज्यों के गरीबों के पक्ष में नहीं है बल्कि धनी वगोZं के पक्ष में है। मौजूदा समय में केन्द्र और राज्य सरकारें कुल मिलाकर सकल रा\ष्ट्रीय उत्पाद का 1-5 प्रति\शत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च कर रही है। यह खर्च स्वास्थ्य पर सकल रा\ष्ट्रीय उत्पाद का पांच प्रति\शत हिस्सा खर्च करने की वि\श्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू-एच-ओ-) की अनु\शंसा से बहुत कम है। भोरे समिति ने आजादी के समय ही स्वास्थ्य पर कम से कम इतना ही खर्च करने की सिफारि\श की थी। वैसे तो हमारे दे\श में प्रथम पंचव\षीZय योजना में स्वास्थ्य पर कुल 3-3 प्रति\शत निवे\श किया गया था, जो हर पंचव\षीZय योजना में घटता गया। मौजूदा स्थिति यह है कि स्वास्थ्य पर जो निवे\श किया जा रहा है उसका 80 प्रति\शत हिस्सा चिकित्सकों एवं कर्मचारियों के वेतन पर ही खर्च हो जाता है और \शे\ष राf\श दवाईयों, उपकरणों तथा अन्य जरूरी मदों में खर्च होती है।
लोगों की एक पुरानी f\शकायत अस्पतालों में स्वास्थ्य कर्मियों की गैरमौजूदगी की है। आज प्रति 10 हजार लोगों पर तीन लाइसेंस\शुदा चिकित्सक और प्रति 10 हजार लोगों पर अस्पतालों में 10 बिस्तर हैं। ये ढांचे एवं सुविधायें हमारी उस थकी हारी चिकित्सा व्यवस्था का हिस्सा है जो गांवों और कस्बों में रहने वाले बड़े हिस्सों को कहने भर को चिकित्सा सेवायें मुहैया करा पा रही हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और उप केन्द्रों में इलाज के लिये आने वाले मरीज अद्धZचिकित्सा कfम्ाZयों पर ही निर्भर हैं। प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों की मुख्य समस्या यह है कि इन पर संक्रामक बीमारियों की रोकथाम के कार्यक्रम चलाने की जिम्मेदारी इस कदर लाद दी गयी है कि केन्द्र रोगियों को सामान्य चिकित्सा उपलब्ध कराने में अक्षम साबित हो रहे हैं।
आज एक समय काबू में कर ली गयी मलेरिया, कालाजार और तपेदिक जैसी बीमारियों अधिक आक्रामकता एवं \शक्ति के साथ कोहराम मचा रही हैं, जो एक समय या तो मिटा दी गई थीं या नियंत्रित कर ली गई थीं। यही नहीं, आज एड्स जैसी बीमारियां जन-स्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौती बनकर सामने आ रही हैं। एड्स ऐसी खौफनाक बीमारी है, जिसका अभी तक इलाज नहीं ढूंढा जा सका है। अगर इसका कारगर उपचार नहीं ढूंढा गया, तो अनुमान है कि अगली \शताब्दी के आरंभ से एड्स भयानक महामारी का रूप धारण कर लेगा और लाखों लोग इसके कारण मौत के f\शकार बनेंगे। बढ़ते प्रदू\षण, भाग-दौड़, व्यस्तता और रहन-सहन तथा खान-पान में बदलाव के कारण स्वास्थ्य की नयी-नयी समस्याएं सामने आ रही हैं। आज âदय रोग, तपेदिक और यौन रोग समेत तमाम \शारीरिक बीमारियों का प्रकोप दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। दे\श में जीवनरक्षक दवाईयों एवं बुनियादी चिकित्सा के अभाव में रोजाना सैकड़ों लोग उन सामान्य बीमारियों के कारण असमय मर रहे हैं जिनका आसानी से इलाज हो सकता है, बच्चों में दमा, निमोनिया जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है। दे\श में गरीब लोग कुपो\षण, रोके जा सकने वाले संक्रमणों, प्रसव संबंधी जटिलताओं से मौत के ग्रास बन रहे हैं। ऐसे में आने वाले समय में बीमारियों के विस्फोट के कारण उत्पन्न चुनौतियों का सामना हम ऐसी स्वास्थ्य नीति बनाकर ही कर सकते हैं जो खुद सही मायने में स्वस्थ एवं संतुलित हो।
स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर निवे\श में भारी वृfद्ध करने की जरूरत तो है ही लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरत दे\श के पिछड़े इलाकों में रह रहे लोगों को समुचित स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराने की है। इसके अलावा दे\श की मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था को भी पूरी तरह से पुनजीZवित एवं सक्रिय करने की जरूरत है। यह काम केवल सरकार एवं सरकारी विभागों के बलबूते का नहीं है बल्कि जरूरी यह है लोग अपने, अपने परिवार और समुदाय के स्वास्थ्य की जिम्मेदारियों को समझें और उन जिम्मेदारियों को वहन करेंं। अगर हम तत्काल नहीं चेते तो आने वाले समय में हमारा दे\श बीमारों से भर जायेगा।
- विनोद विप्लव
21, यू- एन- आई- अपार्टमेन्ट्स
सेक्टर -11, वसुंधरा
गाजियाबाद
बाक्स
लूट में सक्रिय निजी अस्पताल
- विनोद विप्लव
हमारे दे\श में आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा निजी अस्पतालों एवं निजी चिकित्सकों के रहमोकर्म पर निर्भर है। सरकार ने आम लोगों को स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराने के मामले में निजी क्षेत्र को महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी है। दे\श में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं तथा निजी स्वास्थ्य सेवाओं की जनोपयोगिता के बारे में कोई तुलनात्मक अध्ययन करना संभव नहीं है क्योंकि दोनों के लक्ष्य बिल्कुल अलग-अलग हैं। निजी क्षेत्रों का मुख्य उद्दे\श्य मुनाफा कमाना है जबकि सरकारी क्षेत्र का उद्दे\श्य सामाजिक सेवा होना चाहिये। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का उद्दे\श्य दे\श के सभी भागों में तथा सभी वगोZं के लोगों को चिकित्सा सुविधायें मुहैया कराना होता है वहीं निजी स्वास्थ्य सेवाओं का उद्दे\श्य उन्हीं क्षेत्रों एवं लोगों पर केfन्द्रत करना होता है ताकि जल्द से जल्द और अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जा सके।
स्वास्थ्य के क्षेत्र निजी क्षेत्रों को बढ़ावा देने की सरकार की नीति के कारण आज हमारे दे\श में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा ने बहुत बड़े बाजार का रूप धारण कर लिया है। आज भारत में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का 400 से 600 अरब रुपये का वि\शाल बाजार है। लेकिन इतना वि\शाल होने के बावजूद यह बाजार पूरी तरह से अनियंत्रित एवं अनियोजित है।
अनुमान है कि दे\श में करीब 57 प्रति\शत अस्पताल और 32 प्रति\शत बिस्तर निजी क्षेत्रों में हैं। हालांकि निजी क्षेत्रों में आने वाले 85 प्रति\शत अस्पतालों में 25 से भी कम बिस्तर हैं। भारतीय मेडिकल परि\षद से पंजीकृत चिकित्सकों में से केवल 20 प्रति\शत चिकित्सक सरकारी सेवा में हैं।
दे\श में स्वास्थ्य सेवाओं पर की जाने वाली खर्च में से 75 प्रति\शत खर्च निजी क्षेत्र से, 16 प्रति\शत खर्च राज्यों सेे, और छह प्रति\शत खर्च केन्द्र सरकार से और \शे\ष तीन प्रति\शत खर्च निगमित क्षेत्र से होती है। दे\श में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में निजी क्षेत्रों के व्यापक पैमाने पर विस्तार के मद्देनजर निजी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर काफी \शंकायें एवं आ\शंकायें जतायी गयी है।
हमारे दे\श में सरकार निजी अस्पताल, जांच केन्द्र और फर्मास्यूटिकल बनाने के लिये सबसिडी, _ण, कर में माफी और अन्य सुविधायें प्रदान करती है। मिसाल के तौर पर सरकार अनैतिक, \शो\षक एवं मरीजों को लूटने वाले निजी क्षेत्र के अस्पतालों को सरकारी राजस्व से f\शक्षा पाने वाले चिकित्सक उपलब्ध कराकर उनकी किस भारी पैमाने पर मदद करती है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार को एक चिकित्सक की f\शक्षा एवं उनके प्रf\शक्षण पर मौजूदा बाजार मूल्य के हिसाब से करीब दस लाख रुपये खर्च करती है और सरकारी खर्च पर चलने वाले मेडिकल कालेजों से f\शक्षा पाकर निकलने वाले 80 प्रति\शत चिकित्सक या तो निजी क्षेत्रों में नौकरी करने लगते हैं या विदे\श चले जाते हैं। इस तरह से सरकार अपना एक वि\शाल संसाधन खो देती है जिनका इस्तेमाल जनता के कल्याण के लिये हो सकता था। सरकार की इस अप्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्ष सहायता की बदौलत हमारे दे\श में स्वास्थ्य में जिस वि\शालकाय निजी क्षेत्र का उदय हुआ है वह वि\श्व भर में सबसे बड़ा है। दे\श में निजी क्षेत्र का अंधाधुध विस्तार स्वास्थ्य सुविधाओं के वितरण के मामले में भयानक पैमाने पर असंतुलन एवं वि\षमता के लिये जिम्मेदार तो है ही इसका आंतरिक कार्यकलाप भी समस्याओं से fघरा है। बेहतर, कारगर एवं सक्षम चिकित्सा सेवा देने के निजी अस्पतालों के दावे को सच्चाई की कसौटी पर कसा जाना अभी बाकी ही है जहां मरीजों को गलत चिकित्सा देने और मरीजों को लूटने के लिये गैर जरूरी जांच एवं गैर जरूरी सर्जरी करने की प्रवृतियां आम हो चुकी हैं।
- विनोद विप्लव